आदिवासी पोषण
यूनिसेफ द्वारा जनजातीय आबादी, विशेष रूप से कुपोषण से पीड़ित बच्चों की सहायता करने के प्रयास।

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स्वतंत्रता के बाद से, कई सरकारी नीतियों और कार्यक्रमों द्वारा आदिवासी समुदायों की आजीविका, शिक्षा और स्वास्थ्य पर ध्यान केंद्रित करके उन्हें विकसित करने के प्रयास किये गए। छह दशकों के विशेष उपायों के बावजूद, आज भी, आदिवासी लोग भारतीय समाज के सबसे कुपोषित भाग बने हुए हैं।
नवीनतम उपलब्ध आंकड़ों से पता चलता है कि भारत के 47 लाख आदिवासी बच्चे पोषण की भीषण कमी से पीड़ित हैं, जो उनके जीवित रहने, विकास, सीखने, स्कूल में प्रदर्शन और वयस्कों के रूप में उत्पादकता को प्रभावित कर रहा है। (न्यूट्रिशन इंडिया इंफो)।
50 लाख गंभीर रूप से कुपोषित आदिवासी बच्चों के लगभग 80 प्रतिशत सिर्फ आठ राज्यों कर्नाटक, छत्तीसगढ़, गुजरात, झारखंड, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान और ओडिशा में रहते हैं। इन राज्यों में और अन्य राज्यों में भी जनजातीय लोगों को, जो भारतीय संविधान की पांचवीं अनुसूची से आच्छादित हैं, भूमि हस्तांतरण, विस्थापन और अपर्याप्त मुआवजे का सबसे अधिक खामियाजा भुगतना पड़ा है।
भारत के पाँच वर्ष की आयु से कम के आदिवासी बच्चों में से लगभग 40 प्रतिशत बच्चे बौने (स्टंटेड) हैं, और उनमें से 16 प्रतिशत गंभीर रूप से बौने (स्टंटेड) हैं। कम एवं मध्यम स्तर का बौनापन (स्टंटिंग) आदिवासी और गैर-आदिवासी बच्चों में समान है। लेकिन गैर-आदिवासी बच्चों (CNNS 2016-18) की तुलना में आदिवासी में गंभीर बौनापन (स्टंटिंग) अधिक (16 प्रतिशत बनाम 9 प्रतिशत) है।
भारत के पाँच वर्ष की आयु से कम के आदिवासी बच्चों में से लगभग 40 प्रतिशत बच्चे बौने (स्टंटेड) हैं, और उनमें से 16 प्रतिशत गंभीर रूप से बौने (स्टंटेड) हैं।
सामाजिक एवं आर्थिक रूप से उन्नत वर्गों के बच्चों की तुलना में आदिवासी बच्चों में कुपोषण का स्तर अधिक है। इसी तरह, आदिवासी लोगों की आय सुरक्षा, उत्पादक संसाधनों को होने वाले नुकसान और उन तक पहुंच से प्रतिकूल रूप से प्रभावित हुई है (खराब मुआवजे के साथ वन या कृषि भूमि के अधिकार)। उनके लिए ऋण ही इससे निदान की मुख्य रणनीतियों में से एक है, जिसके परिणामस्वरूप प्रभावित लोगों के सामने अस्तित्व का संकट खड़ा हो गया है।
ओडिशा (लिविंग फ़ार्म्स) और राजस्थान (वागधारा) में प्रयास किया गया है कि जंगल के अप्रयुक्त फलों और सब्जियों को पुनः प्राप्त कर के और पुनर्जीवित करके उन्हें घरेलू चूल्हा में उपयोग में लाया जाये जिससे आहार विविधता में सुधार हो सके। सामुदायिक वनों की सुरक्षा के लिए इन दोनों प्रयासों की वकालत और समर्थन किया गया, ताकि देश के साथ-साथ स्थानीय जीविकोपार्जन के साथ-साथ पर्यावरणीय सुरक्षा के लिए वन्य भूमि का न्यूनतम प्रतिशत रखा जा सके।
साथ ही कुछ आशाजनक पहल भी हुई हैं। मध्य प्रदेश सरकार का एक ऑनलाइन पोर्टल, समग्र, स्थानीय निकायों द्वारा एक परिवार में सभी व्यक्तियों की पहचान, सत्यापन, अद्यतन और वर्गीकरण में सहयोग कर रहा है और घरों को उनके उचित मूल्य की दुकानों में इलेक्ट्रॉनिक रूप से जोड़ रहा है। आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में गर्म पके हुए भोजन के साथ गर्भवती महिलाओं और स्तनपान कराने वाली माताओं के लिए एक पूरक पोषण कार्यक्रम ने राष्ट्रीय एकीकृत बाल विकास सेवा (ICDS) योजना की पहुँच को बेहतर बनाने में मदद की है।
इसी तरह, छत्तीसगढ़ में, जन स्वास्थ्य सहयोग ने ग्रामीण बिलासपुर के वन्य एवं दूर-दराज़ इलाकों में छह से छत्तीस महीने के बच्चों के लिए हैमलेट आधारित क्रेच पर साक्ष्य प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। उन्होंने सरकार द्वारा इस तरह के कार्यक्रम को चलाने के लिए परिचालन आवश्यकताओं, लागत, प्रशिक्षण सामग्री और स्टेशनरी की जरूरतों और एक समस्या निवारण मार्गदर्शिका भी विकसित की है।
पीआरआईए और ग्राम विकास द्वारा सरकार-एनजीओ साझेदारी मॉडल ने समुदायों और ग्राम पंचायतों को पानी और स्वच्छता संरचनाओं के निर्माण और रखरखाव और उनकी जिला योजना समितियों को सक्रिय करने के लिए छत्तीसगढ़, ओडिशा और झारखंड में एक साथ काम करने में मदद की है। भारत का फ्लोराइड नेटवर्क पीने के पानी में फ्लोराइड विषाक्तता को कम करने को पोषण संबंधी सुधारों से जोड़ता है। तरुण भारत संघ और उर्मुल ट्रस्ट, समुदायों से जल प्रबंधन के पारंपरिक ज्ञान का उपयोग करते हैं और सामुदायिक जल प्रबंधन मॉडल को राजस्थान के गंभीर जल-संकट वाले रेगिस्तानी जिलों में प्रोत्साहित करते हैं।
यूनिसेफ के # I.COMMIT अभियान में आदिवासी बच्चों में अल्पपोषण को दूर करने हेतु सकारात्मक कार्रवाई के लिए कई विभागों के साथ कई स्तरों पर सार्वजनिक वकालत जारी है।
जनवरी 2015 में, यूनिसेफ ने जनजातीय मामलों के मंत्रालय के साथ मिलकर 'भारत के जनजातीय बच्चों का पोषण’ विषय पर एक राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित किया। दो दिवसीय सम्मेलन में लगभग 300 चिकित्सकों, फ्रंटलाइन कार्यकर्ताओं, शिक्षाविदों, नागरिक समाज, नीति निर्माताओं, मीडिया और विधायकों को एक साथ लाया गया।
उन्होंने पांचवी अनुसूची वाले नौ राज्यों से संबंधित आदिवासी बच्चों के पोषण की स्थिति का जायजा लिया, जहां बच्चों में बौनेपन (स्टंटिंग) की समस्या सबसे अधिक है, जिससे इस विषय पर चर्चा की जा सके कि ' क्या और कैसे किया जा सकता है' और कैसे विभिन्न राज्यों के विभाग आपस में समन्वय, सहयोग और सहभागिता के साथ आदिवासी क्षेत्रों में पोषण संबंधी चुनौतियों का हल खोज सकते हैं | नेशनल कॉन्क्लेव के बाद नौ राज्यों में से पांच में एक राज्य कॉन्क्लेव का आयोजन किया गया |