जहां ना थी कोई स्वास्थ्य सेवा और सफाई, वहां पहुंचकर अलख जगाई
यूनिसेफ ने वाडर समुदाय और सैय्यद समुदाय के लोगों को मुख्यधारा में जोड़ने के लिए निभाई अहम भूमिका

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कासलीवाल बस्ती की रहने वाली 22 वर्षीय चंद्रकला, अपने समुदाय से जुड़ी प्रथा के कारण अपने बच्चे के जन्म से 22 दिन तक झोपड़ी से बाहर ही खुले आसमान के नीचे रही। क्योंकि उनका समुदाय जच्चा को 22 दिन तक अपवित्र मानता है। लेकिन, वो अपने समुदाय की पहली महिला हैं, जो प्रधानमंत्री मातृ वंदना योजना से जुड़ी हैं।
ये बहुत ही छोटा और अहम कदम है। जहां दोनों जच्चा बच्चा को अपने समुदाय की परंपराओं के कारण झोपड़ी से बाहर रहना पड़ा, वहीं नव शिशु देश के स्वास्थ्य नेटवर्क में शामिल होकर सरकारी योजनाओं से लाभांवित होगा।

यूनिसेफ महाराष्ट्र सरकार के साथ मिलकर समाज में हाशिए पर पहुंचे परिवारों के बच्चों और घुमंतू जनजातियों के बच्चों को वैक्सीन से इम्यूनाइजेशन देने का काम कर रहे हैं।
छत्रपति संभाजीनगर और नासिक में घुमंतू जनजातियों के बच्चों तक पहुंचने के लिए यूनिसेफ पिछले दो सालों से लगातार फ्रंटलाइन हेल्थ वर्करों को मदद पहुंचा रहा है। इसके ज्वलंत उदाहरण कासलीवाल की बस्तियां हैं, जहां वाडर समुदाय के लोग रहते हैं, वहीं नासिक के औरंगाबाद में सैय्यद समुदाय के लोग रहते हैं। दोनों ही समुदाय भूमिहीन हैं। इसलिए प्राय घुमंतू होकर जीवन व्यतीत करते हैं। आय के भी नियमित साधन नहीं हैं। वहीं साफ पानी और प्रसाधन की पहुंच भी ना होने से बच्चे भी जानलेवा बीमारियों की चपेट में आ सकते हैं।

दोनों ही जनजातियां, आय के साधन ना होने और एक ही जगह घरबार ना होने से सरकारी स्वास्थ्य सेवा नेटवर्क से बाहर हैं। जब इनके बारे में बता चला यूनिसेफ ने मदद का हाथ बढ़ाया। यूनिसेफ ने एएनएम और आशा वर्कर के साथ टीम बनाकर गतिविधियां तेज की। मेहनत का फल मिलना शुरू हुआ, लोगों का विश्वास बढ़ा, जल्द ही लोगों ने एएनएम और आशा वर्करों की बात को गंभीरता से लेना शुरू किया। कुछ महिलाएं भी अपने बच्चों को वैक्सीन की डोज दिलाने के लिए तैयार हुई।

एएनएम ज्योति चावन कहती है कि, "जब हम पहली बार यहां कासलीवाल स्लम में आए तो लोगों ने विरोध किया। मगर, यूनिसेफ की मदद से हम लोगों से और महिलाओं से संपर्क बनाते रहे। लोगों का विश्वास बढ़ा और महिलाओं ने भी जुड़ना शुरू किया। अब कुछ महिलाएं तो हमारे साथ डोर टू डोर कैंपेन में भी जाती हैं।"

मनीषा खोलासे और सुनीता अहिरे भी मुस्कुराते हुए बताती हैं कि, "जब हमने नासिक की औरंगाबाद रोड स्लम में आना शुरू किया तो पहले-पहले लोग हमें भगा देते थे। यूनिसेफ के फील्ड रिसोर्स पर्सन के मदद से हम लोगों के बीच में अपनी बात पहुंचाने में सफल हुए। आखिर ये उनके बच्चों के स्वास्थ्य की बात है। उन्हें हमारे मोबाइल फोन में यूनिसेफ की वीडियो भी दिखाई। अब वे अन्य महिलाओं को समझाने के लिए हमारे साथ आती हैं।"

वैक्सीन लगवाने के बाद छह वर्षीय भावना की मां संगीता कहती हैं, "पहले हम इस दवाई के बारे में बहुत ही शंकित थे। अब मैं खुश हूं कि मेरे बच्चे कई गंभीर बीमारियों से सुरक्षित हैं। जब अन्य महिलाएं अपने बच्चों के बारे में पूछती हैं तो मैं हमेशा उन्हें अपने बच्चों को वैक्सीन लगवाने के बारे में कहती हूं।"

अब यूनिसेफ के प्रयास से ऐसा हो पाया है कि कोई भी शिशु पैदा होता है तो हमें एएनएम और जीएनएम को तुरंत पता चल जाता है। रेखा कहती हैं कि, " आशा ताई ने मुझे मोबाइल फोन पर वैक्सीन संबंधी वीडियो दिखाई थी। उन्होंने कहा था कि वैक्सीन से मेरा बच्चा गंभीर बीमारियों से सुरक्षित होगा। पहले मेरे बच्चे हफ्तों तक बीमार रहते थे। अब वैक्सीन लगवाने के बाद वे स्वस्थ रहने लगे। अब मैं अपने समुदाय की महिलाओं को उनके बच्चों को वैक्सीन लगवाने के लिए जागरूक करती हूं।"
